जलीस अहमद हमीदी ने कहा इस दुनिया को अलविदा

एक मुखलिस शख्सियत से दुनिया हुई ख़ाली

हज़ारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है।

बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।।

मौत उसकी है करे जिसका ज़माना अफ़सोस।

यूं तो दुनियां में सभी आए हैं मरने के लिए।।

तहरीर_( शेख साजिद हुसैन)

इस दार ए फ़ानी को अलविदा कहने वालों में मरहूम जलीस अहमद हमीदी भी अपना नाम दर्ज करा के 11 जून 2025 को रुखसत हो गए..उन्होनें अपनी जिंदगी के सफर की शुरुआत 25 मई 1932 को बदायूं शहर से शुरू की थी।
कहते हैं कि इस दुनिया में हर कोई अपनी आखिरी मंजिल के लिए अपना सफर तय करने के लिए आया है..और ये कि वो इंसान कैसा है, उसके सफर को तय करने के तरीके से जाना जा सकता है।

उनकी जिंदगी का तरीक़ा ए कार्य क्या था और उन में क्या क्या ख़ुसूसियत पाई जाती थीं और उन्हों ने किन चीजों को तरजीह दी इसके लिए हमने उनके बेटे खावर जलीस से कुछ जानकारियां लीं उन्हों ने अपने वालिद के मुतालिक कुछ वोह बातें बताई जो शायद वो आज के दौर के लिए मिसाल हों।

तो आइए मरहूम जलीस अहमद हमीदी की जिंदगी के सफर पर एक नजर डालते हैं और उनकी शख्सियत के बारे में बताते हैं जिनमें लोग बहुत काबिल, मुखलिस, निस्वार्थ और बेहद नेक और बड़े इंसान के दर्जे से नवाजते चले आए हैं।
मरहूम के वालिद जनाब मोईन अहमद, जिन्होनें हमेशा शिक्षा को बेहद तर्जी दी, अपने तीन बेटों को भी इसी बात पर उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से तालीम दिलायी..और मरहूम मोइन साहब के बेटों ने भी उनका नाम रोशन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी..बड़े बेटे मरहूम हबीब हमीदी, इस्लामिया कॉलेज बदायूँ के प्रिंसिपल रहे, छोटे बेटे मरहूम जावेद हमीदी, लखनऊ दूरदर्शन समाचार से वाबस्ता रहे और बीच के मरहूम जलीस अहमद हमीदी जिन्होनें अभी चंद दिन पहले वफ़ात पाई वो भी इस्लामिया कॉलेज लखनऊ के प्रिंसिपल रहे..लेकिन जलीस साहब के साथ शिक्षा के अलावा भी कई और तमगे हैं..वो 19 60 में अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के एक कामयाब अध्यक्ष रहे..ये वो थे जब एएमयू का अध्यक्ष अपनी योग्यता, विचारधाराओं और तकरीर की सलाहियतों पर चुना जाता था…और यहां ये बता देना मुनासिब है कि मरहूम जलीस साहब अपने दौर में आल इंडिया के सर्वश्रेष्ठ वक्ता का भी खताब कई बार जीत चुके हैं..लिहाजा उनकी क़ाबलियत का अंदाजा कोई भी लगा सकता है…शायद यही वजह थी कि उनके बुलावे पर, अलग-अलग मौके, तकरीबों और जलसों पर उस वक्त के यू ए ई के राष्ट्रपति कर्नल नासिर, हिंदुस्तान के वजीर ए आजम, जवाहर लाल नेहरू, हिंदुस्तान के सदर डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद जैसी और भी कई मशहूर ओ मारूफ शक्सियतें ए एम यू आईं और जलीस साहब के साथ सभी ने आपस में तबादले ख़याल किए..
जवारलाल नेहरू तो जलीस साहब से इस कदर मुतास्सिर हुए थे जलीस साहब के सामने उन्हों ने कांग्रेस पार्टी में शामिल होने की तजवीज रखी जो शायद इस वजह से पूरी ना हो सकी क्योंकि उन्हें अपने वालिद से राजनीति में शामिल न होने की हिदायत मिल चुकी थी।
जलीस साहब ही यूनियन के ऐसे सदर रहे जिन्होनें राजनीति से नाता तोड़ लिया और शिक्षा से नाता जोड़ लिया।

जानने वालो को पता है कि जलीस साहब बायोलॉजी के लेक्चरर और प्रिंसिपल होने के साथ-साथ एक आला दर्जे के शायर भी थे। लेकिन शायरी उनहों ने हमेशा खुद के और मुआशरे का हाल बताने के लिए ही की मशहूर होने के लिए नहीं। इस बात का सबूत ये है कि आज तक सैकड़ो ग़ज़लें कहने के बावज़ूद भी उन्हों ने अपनी कोई किताब शायरी की पब्लिश नहीं कराई। भले ही उन्हें इस बात से कोई फ़र्क ना पड़ता हो कि कोई उन्हें उनके फन और हुनर ​​के लिए जाने मगर कहते हैं ना अगर रोशनी होती है तो ज़रूर नज़र आती है। जलीस साहब के कलाम भले ही कहीं नहीं पब्लिश हुए लेकिन इतने मकबूल हुए कि ज़माने के मशहूर शोअरा जैसे राहत इंदौरी, निदा फ़ाज़ली, बशीर बदर तक अक्सर उनके शेर दोहरा दिया करते थे। एक मुशायरे में काफ़ी इसरार के बाद जलीस साहब सदर बनने को तैयार हुए तो वहां जब राहत इंदौरी के पढ़ने की बारी आई तो उनके लफ्ज ये थे..,,” कि मैं नशिस्तों के शायरों के सामने पढ़ने में थोड़ा घबराता हूं..क्यों कि वो ही असली शायर होते हैं..” ज़ाहिर है इशारा जलीस साहब. की तरफ ही था..और फिर उन्हों ने जलीस साहब से इजाज़त ले कर अपना कलाम पढ़ा।

अब बात उनके उस्ताद होने की करें तो ना जाने कितने डॉक्टरों ने उनको खिराज ए अकीदत पेश की है जिनके उस्ताद वो कभी ना कभी रहे थे..पिछले दो साल से उनकी तबीयत खराब थी और बलरामपुर के यूरो विशेषज्ञ डॉ. ए.एन. उस्मानी के ज़ेरे निगरानी उनका इलाज चल रहा था, यहाँ ये बता देना ज़रूरी है कि डॉ. ए.एन. उस्मानी के भी उस्ताद जलीस साहब ही थे जिन्हों ने उनके इलाज के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन जो जितनी सांसें लिखवा कर आता है उतनी ही इस्तमाल कर पाता है। ये डॉक्टर उस्मानी की अपने उस्ताद के लिए मोहब्बत और इज़्ज़त ही थी जो वो उनके आख़िर वक़्त तक साथ रहे। और यही जलीस साहब की कमाई रही। क्योंकि उन्हों ने उस दौर की करोबारी बड़ी-बड़ी सीपीएमटी कोचिंग में पढ़ाने से हमेशा परहेज करा, इसके बर अक्स अनहो ने हमेशा इम्तिहानों से पहले जरूरत मंद बच्चों को अपने घर पर बिना फीस लिए पढाया.
उन्हें जानने वाले मानते हैं कि मरहूम जलीस साहब, एक बेहद मुखलिस, नेक, खुद्दार, बेनियाज़ और सूफियाना किस्म की शकसियत के मालिक थे।
इस लेख के साथ में उनकी कुछ बेशक़ीमती और नायब तसवीरें भी साथ हैं।
आख़िर में बस जलीस साहब के दो शेर याद आ रहे हैं।

जलीस जैसे भी गुज़रे, गुज़ार ही लेंगे..
परेशा हम नहीं दो रोजा जिंदगी के लिए।

मैं जब जलीस चाहूं, साकी से जाम ले लूं..
खुद्दारियां हैं माना, ये बेबसी नहीं है।
अलविदा सर..अल्लाह आपको जन्नत में मुकाम अता करे(आमीन)

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